ऐ गर्दिशो तुम्हें ज़रा ताख़ीर हो गई
अब मेरा इंतिज़ार करो मैं नशे में हूँ
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दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
उन को सज्दा कर लिया महबूब की तस्वीर जान
सुब्ह हैं सज्दे में हम तो शाम साक़ी के हुज़ूर
ये महल ये माल ओ दौलत सब यहीं रह जाएँगे
पत्थरों के देस में शीशे का है अपना वक़ार
अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई
किस लिए अब हयात बाक़ी है
सामने आँखों के घर का घर बने और टूट जाए
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
बज़्म-ए-याराँ है ये साक़ी मय नहीं तो ग़म न कर
जिस्म-ए-शफ़्फ़ाफ़ में शोला सा रवाँ हो जैसे