ख़ादिम-ए-उर्दू-ज़बाँ हूँ शाएरी मकतब मिरा
और भी रिश्ते हैं लेकिन दोस्ती मज़हब मिरा
लखनऊ मेरा वतन है बम्बई मेरा नसीब
'तर्ज़' कहते हैं मुझे सब, मय-कशी मशरब मिरा
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दोस्ती अपनी जगह और दुश्मनी अपनी जगह
हल्क़ा-ए-मय से किसी को भी निकलने न दिया
अब मैं हुदूद-ए-होश-ओ-ख़िरद से गुज़र गया
माहौल साज़गार करो मैं नशे में हूँ
पूछा कैसे? तो हँस के फ़रमाया
रात की रात बहुत देख ली दुनिया तेरी
'दाग़' के शेर जवानी में भले लगते हैं
अजनबी बन के हँसा करती है
क्या ज़िद है कि बरसात भी हो और नहीं भी हो
आसरा जब भी कोई टूटे है
लम्हा लम्हा मौत को भी ज़िंदगी समझा हूँ मैं
तल्ख़ियों में समा के पीता हूँ