जब जवानी गई छुड़ा कर हाथ
उस पे पीरी न कुछ चली दिल की
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क्या वस्फ़ लिखूँ ज़ुल्फ़-ए-सियह की लट का
ज़र्रे की तरह ख़ाक में पामाल हो गए
रुके है आमद-ओ-शुद में नफ़स नहीं चलता
गुज़िश्ता साल जो देखा वो अब की साल नहीं
जान पर अपनी हाए क्यूँ बनती
कुछ तेरा समर न ऐ जवानी पाया
दूर हम से हैं वो तो क्या डर है
पीरी में ख़ाक ज़िंदगानी का मज़ा
इक ख़याल-ओ-ख़्वाब है ए 'शोर' ये बज़्म-ए-जहाँ
जहाँ में ज़र का है कारख़ाना न कोई अपना न है यगाना
इक नज़र ने किया है काम तमाम