मता-ए-बर्ग-ओ-समर वही है शबाहत-ए-रंग-ओ-बू वही है
खुला कि इस बार भी चमन पर गिरफ़्त-ए-दस्त-ए-नुमू वही है
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हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
कभी मोहब्बत से बाज़ रहने का ध्यान आए तो सोचता हूँ
नशात-ए-फ़त्ह से तो दामन-ए-दिल भर नहीं पाए
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
तड़प उठी है किसी नगर में क़याम करने से रूह मेरी
मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से
मिरे मायूस रहने पर अगर वो शादमाँ है
सुब्ह तक जिन से बहुत बेज़ार हो जाता हूँ मैं
आइने में अक्स खिलता है गुल-ए-हैरत नहीं
जहाँ भर में मिरे दिल सा कोई घर हो नहीं सकता
आइना-आसा ये ख़्वाब-ए-नीलमीं रक्खूँगा मैं
सितारा-ए-ख़्वाब से भी बढ़ कर ये कौन बे-मेहर है कि जिस ने