पहले इक शख़्स मेरी ज़ात बना
और फिर पूरी काएनात बना
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बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
याद अश्कों में बहा दी हम ने
हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
कश्ती भी नहीं बदली दरिया भी नहीं बदला
रात का हर इक मंज़र रंजिशों से बोझल था
हम ने तो बे-शुमार बहाने बनाए हैं
समीता-पाटिल
अकेला दिन है कोई और न तन्हा रात होती है
रात उस के सामने मेरे सिवा भी मैं ही था
ख़ामोश थे तुम और बोलता था बस एक सितारा आँखों में
तिरी आवाज़ को इस शहर की लहरें तरसती हैं