ज़बान ओ दहन से जो खुलते नहीं हैं
वो खुल जाते हैं राज़ अक्सर नज़र से
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Rahat Indori
Gulzar
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(633) Peoples Rate This
कहानी अपनी अपनी अहल-ए-महफ़िल जब सुनाते हैं
उमीदें तो वाबस्ता हैं अब्र-ए-तर से
ज़माने की कशाकश का दिया पैहम पता मुझ को
कोई हद भी है आख़िर इम्तिहाँ की
कहा झुँझला के अहल-ए-क़ाफ़िला से एक रहबर ने
मुकम्मल दास्ताँ का इख़्तिसार इतना ही काफ़ी है
ये मय-कश कौन बा-सद लग़्ज़िश-ए-मस्ताना आता है
ज़मीं पर हैं वो कुछ मिट्टी के पुतले
ज़िंदगी इक सवाल है जिस का जवाब मौत है
शौक़-ए-सवाब कुछ नहीं ख़ौफ़-ए-अज़ाब कुछ नहीं
तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे