टुकड़ा इक नज़्म का
दिन भर मेरी साँसों में सरकता ही रहा
लब पे आया तो ज़बाँ कटने लगी
दाँत से पकड़ा तो लब छिलने लगे
न तो फेंका ही गया मुँह से, न निगला ही गया
काँच का टुकड़ा अटक जाए हलक़ में जैसे
टुकड़ा वो नज़्म का साँसों में सरकता ही रहा
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बीते रिश्ते तलाश करती है
ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
फिर वहीं लौट के जाना होगा
हर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिए
ज़िंदगी पर भी कोई ज़ोर नहीं
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वो जो शाएर था
आप ने औरों से कहा सब कुछ
फूलों की तरह लब खोल कभी
समय
वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
किनारे पर कोई आया था