तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब'
अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे
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सब्ज़ा-ज़ारों में गुज़र था अपना
शहर-ए-ज़ुल्मात को सबात नहीं
जीवन मुझ से मैं जीवन से शरमाता हूँ
रेफ़्रेनडम
कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ
पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या
शेर से शाइरी से डरते हैं
फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल
कहीं आह बन के लब पर तिरा नाम आ न जाए
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' बने 'यगाना' बने
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था