वफ़ाओं के बदले जफ़ा कर रहे हैं
मैं क्या कर रहा हूँ वो क्या कर रहे हैं
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ख़ामोश हो गईं जो उमंगें शबाब की
मदफ़न-ए-ग़रीबाँ है आओ फ़ातिहा पढ़ लें
दिल से तिरा ख़याल न जाए तो क्या करूँ
वफ़ा जिस से की बेवफ़ा हो गया
कोई चारा नहीं दुआ के सिवा
उठो अब देर होती है वहाँ चल कर सँवर जाना
कैसे बंद हुआ मय-ख़ाना अब मालूम हुआ
तिरे दिल में भी हैं कुदूरतें तिरे लब पे भी हैं शिकायतें
ज़ब्त-ए-गिर्या कभी करता हूँ तो फ़रमाते हैं
'हफ़ीज़' अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
बुत कहते हैं मर जा मर जा
आँख कम-बख़्त से उस बज़्म में आँसू न रुका