बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
मर जाइयो मगर ये गवारा न कीजियो
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पी कर चैन अगर आया भी कितनी देर को आएगा
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
अभी से होश उड़े मस्लहत-पसंदों के
हाए वो नग़्मा जिस का मुग़न्नी
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला
ऐ दिल ख़ुशी का ज़िक्र भी करने न दे मुझे
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला