शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
मोहतरम की बात को झुटलाएँ क्या
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कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
हर सहारा बे-अमल के वास्ते बे-कार है
शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
कभी कभी हमें दुनिया हसीन लगती थी
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
सिर्फ़ ज़बाँ की नक़्क़ाली से बात न बन पाएगी 'हफ़ीज़'
अब खुल के कहो बात तो कुछ बात बनेगी
इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
अभी से होश उड़े मस्लहत-पसंदों के
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है