वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
मैं दोस्तों से हाथ मिलाने में रह गया
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शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज
चाहे तन मन सब जल जाए
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला