क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज
रोते ही जाएँ सामने तुम को बिठा के हम
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बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात सजाने में रह गया
कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
सितम की तेग़ ये कहती है सर न ऊँचा कर
बड़े अदब से ग़ुरूर-ए-सितम-गराँ बोला
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
चाहे तन मन सब जल जाए
शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
इक अजनबी के हाथ में दे कर हमारा हाथ