मय-ख़ाने की सम्त न देखो
जाने कौन नज़र आ जाए
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बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
चाहे तन मन सब जल जाए
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला
लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
कौन कहता है कि महरूमी का शिकवा न करो
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
कभी कभी हमें दुनिया हसीन लगती थी
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
बाद-ए-सबा ये ज़ुल्म ख़ुदा-रा न कीजियो