ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
कितना झुक कर किसे सलाम करो
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कभी कभी हमें दुनिया हसीन लगती थी
दार-ओ-रसन ने किस को चुना देखते चलें
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
तमाम रात आँसुओं से ग़म उजालता रहा
अभी से होश उड़े मस्लहत-पसंदों के
चाहे तन मन सब जल जाए
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
पी कर चैन अगर आया भी कितनी देर को आएगा
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए