हर सहारा बे-अमल के वास्ते बे-कार है
आँख ही खोले न जब कोई उजाला क्या करे
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ये भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा
ऐ दिल ख़ुशी का ज़िक्र भी करने न दे मुझे
लहू से अपने ज़मीं लाला-ज़ार देखते थे
ये हुनर भी बड़ा ज़रूरी है
बे-सहारों का इंतिज़ाम करो
शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज
कभी कभी हमें दुनिया हसीन लगती थी
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए
रसा हों या न हों नाले ये नालों का मुक़द्दर है
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें