हाए वो नग़्मा जिस का मुग़न्नी
गाता जाए रोता जाए
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आबाद रहेंगे वीराने शादाब रहेंगी ज़ंजीरें
चाहे तन मन सब जल जाए
शीशा टूटे ग़ुल मच जाए
बद-तर है मौत से भी ग़ुलामी की ज़िंदगी
गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला
हर सहारा बे-अमल के वास्ते बे-कार है
ऐ दिल ख़ुशी का ज़िक्र भी करने न दे मुझे
सितम की तेग़ ये कहती है सर न ऊँचा कर
वो वक़्त का जहाज़ था करता लिहाज़ क्या
क्या जाने क्या सबब है कि जी चाहता है आज
इस दीवाने दिल को देखो क्या शेवा अपनाए है
शैख़ क़ातिल को मसीहा कह गए