जब से तू ने मुझे दीवाना बना रक्खा है
संग हर शख़्स ने हाथों में उठा रक्खा है
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ऐ दोस्त कहीं तुझ पे भी इल्ज़ाम न आए
वो जो कहता था कि 'नासिर' के लिए जीता हूँ
कभी वो हाथ न आया हवाओं जैसा है
घर में जो इक चराग़ था तुम ने उसे बुझा दिया
आसान किस क़दर है समझ लो मिरा पता
ज़िंदगी को न बना लें वो सज़ा मेरे बाद
तुम्हारे बाद उजाले भी हो गए रुख़्सत
उस के दिल पर भी कड़ी इश्क़ में गुज़री होगी
दो घड़ी दर्द ने आँखों में भी रहने न दिया
इश्क़ कर के देख ली जो बेबसी देखी न थी