कब मुझे उस ने इख़्तियार दिया
कब मुझे ख़ुद पे इख़्तियार आया
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वो निगह जब मुझे पुकारती थी
गली का मंज़र बदल रहा था
सुन क़तार अंदर क़तार अश्जार की सरगोशियाँ
हुज्रा-ए-ख़्वाब से बाहर निकला
भरवा देना मिरे कासे को
रोज़ मैं उस को जीत जाता था
यक़ीन की सल्तनत थी और सुल्तानी हमारी
दिखाई देने लगी थी ख़ुशबू
सेहन-ए-आइंदा को इम्कान से धोए जाएँ
बस एक लम्हा तिरे वस्ल का मयस्सर हो
हम ऐसे लोग जो आइंदा ओ गुज़िश्ता हैं
बे-सबब हो के बे-क़रार आया