रेत पर जलते हुए देख सराबों के चराग़
अपने बिखराव में वो और सँवर जाता है
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उस के गुलाबी होंट तो रस में बसे लगे
एहसास-ए-ना-रसाई से जिस दम उदास था
नश्शा करने का बहाना हो गया
सिमटती शाम अगर दर्द को जगाएगी
''जब तर्सील बटन तक पहुँची''
''ख़्वाहिश बाज़ू फैलाती है''
धरती का उपहार मिला जब
''दीवानों का नाम अबद तक होता है''
गर्दिश की रक़ाबत से झगड़े के लिए था
दिल गिराँ-बारी-ए-वहशत में जिधर जाता है
हर ज़ख़्म-ए-कोहना वक़्त के मरहम ने भर दिया