थोड़ी तकलीफ़ सही आने में
दो घड़ी बैठ के उठ जाइएगा
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दुश्मन हैं वो भी जान के जो हैं हमारे लोग
जानता उस को हूँ दवा की तरह
हक़ारत की निगाहों से न फ़र्श-ए-ख़ाक को देखो
क्यूँ न का'बे को कहूँ अल्लाह का और बुत का घर
टूटें वो सर जिस में तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं
यक-ब-यक तर्क न करना था मोहब्बत मुझ से
तिफ़्ली पीरी ओ नौजवानी हेच
बहार आई है सदमे से हमारा हाल अबतर है
हमारी वो वफ़ादारी कि तौबा
मुझे अब मौत बेहतर ज़िंदगी से
क्या जानें उन की चाल में एजाज़ है कि सेहर
किस की उस तक रसाई होती है