मुझे अब मौत बेहतर ज़िंदगी से
वो की तुम ने सितमगारी कि तौबा
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थोड़ी तकलीफ़ सही आने में
खुली जो आँख मिरी सामना क़ज़ा से हुआ
ख़ूब मिल कर गले से रो लेना
साक़िया ऐसा पिला दे मय का मुझ को जाम तल्ख़
काबा-ए-दिल को अगर ढाइएगा
छा गई एक मुसीबत की घटा चार तरफ़
दुश्मन हैं वो भी जान के जो हैं हमारे लोग
हक़ारत की निगाहों से न फ़र्श-ए-ख़ाक को देखो
टूटें वो सर जिस में तेरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं
चार दिन की बहार है सारी
बहार आई है सदमे से हमारा हाल अबतर है
जानता उस को हूँ दवा की तरह