बनाए जाता था मैं अपने हाथ को कश्कोल
सो मेरी रूह में ख़ंजर उतरता जाता था
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गए दिनों में रोना भी तो कितना सच्चा था
क्या गुमाँ था कि न होगा कोई हम-सर अपना
ग़ज़ल में हुस्न का उस के बयान रखना है
दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में
दूध जैसा झाग लहरें रेत और ये सीपियाँ
हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता
वफ़ा परछाईं की अंधी परस्तिश
वो शख़्स तो मुझे हैरान करता जाता था
बड़ों ने उस को छीन लिया है बच्चों से
क्या तर्जुमानी-ए-ग़म-ए-दुनिया करें कि जब
न टूटे और कुछ दिन तुझ से रिश्ता इस तरह मेरा