वफ़ा परछाईं की अंधी परस्तिश
मोहब्बत नाम है महरूमियों का
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एक दिया कब रोक सका है रात को आने से
है तन्हाई में बहना आँसुओं का
हो तेरी याद का दिल में गुज़र आहिस्ता आहिस्ता
हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता
पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
दूध जैसा झाग लहरें रेत और ये सीपियाँ
वो शख़्स तो मुझे हैरान करता जाता था
बड़ों ने उस को छीन लिया है बच्चों से
बनाए जाता था मैं अपने हाथ को कश्कोल
दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका
दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए