पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
सीखा फ़न हम ने बे-आँसू रोने का
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रंग-ए-सियाह के नाम एक नज़्म
दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में
क्या होता है ख़िज़ाँ बहार के आने जाने से
दूध जैसा झाग लहरें रेत और ये सीपियाँ
गुमनाम शहीद का कतबा
कल यही बच्चे समुंदर को मुक़ाबिल पाएँगे
गए दिनों में रोना भी तो कितना सच्चा था
आज भी तेरी ही सूरत है मुक़ाबिल मेरे
दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए
दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका
दुनिया में कितने रंग नज़र आएँगे नए