दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए
हवा के सामने ये इम्तिहान रखना है
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न टूटे और कुछ दिन तुझ से रिश्ता इस तरह मेरा
गए दिनों में रोना भी तो कितना सच्चा था
कल यही बच्चे समुंदर को मुक़ाबिल पाएँगे
रंग-ए-सियाह के नाम एक नज़्म
ग़म-ए-जाँ गुम ग़म-ए-दुनिया में तो होना मुश्किल
पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
वो शख़्स तो मुझे हैरान करता जाता था
दूध जैसा झाग लहरें रेत और ये सीपियाँ
क्या तर्जुमानी-ए-ग़म-ए-दुनिया करें कि जब
दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में
हुनर जो तालिब-ए-ज़र हो हुनर नहीं रहता