एक दिया कब रोक सका है रात को आने से
लेकिन दिल कुछ सँभला तो इक दिया जलाने से
Habib Jalib
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Gulzar
Rahat Indori
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दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका
हो तेरी याद का दिल में गुज़र आहिस्ता आहिस्ता
बनाए जाता था मैं अपने हाथ को कश्कोल
रंग-ए-सियाह के नाम एक नज़्म
कल यही बच्चे समुंदर को मुक़ाबिल पाएँगे
वो शख़्स तो मुझे हैरान करता जाता था
दुनिया में कितने रंग नज़र आएँगे नए
गुमनाम शहीद का कतबा
ग़म-ए-जाँ गुम ग़म-ए-दुनिया में तो होना मुश्किल
उस इक उम्मीद को तो राहत-ए-सफ़र न समझ
क्या तर्जुमानी-ए-ग़म-ए-दुनिया करें कि जब
माज़ी में रह जाने वाली आँखें