गए दिनों में रोना भी तो कितना सच्चा था
दिल हल्का हो जाता था जब अश्क बहाने से
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क्या होता है ख़िज़ाँ बहार के आने जाने से
पाया जब से ज़ख़्म किसी को खोने का
क्या गुमाँ था कि न होगा कोई हम-सर अपना
सफ़्फ़ाक सराब से ज़ियादा
वो शख़्स तो मुझे हैरान करता जाता था
न टूटे और कुछ दिन तुझ से रिश्ता इस तरह मेरा
एक दिया कब रोक सका है रात को आने से
दुख उठाओ कितने ही घर बहार करने में
मशरिक़ी लड़कियों के नाम एक नज़्म
दिल में तिरे ख़ुलूस समोया न जा सका
दिए बुझाती रही दिल बुझा सके तो बुझाए