कहाँ हम कहाँ वस्ल-ए-जानाँ की 'हसरत'
बहुत है उन्हें इक नज़र देख लेना
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बद-गुमाँ आप हैं क्यूँ आप से शिकवा है किसे
मुझ से तन्हाई में गर मिलिए तो दीजे गालियाँ
लुत्फ़ की उन से इल्तिजा न करें
हम जौर-परस्तों पे गुमाँ तर्क-ए-वफ़ा का
शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द व-लेकिन 'हसरत'
'हसरत' जो सुन रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का हाल
ख़ू समझ में नहीं आती तिरे दीवानों की
महरूम-ए-तरब है दिल-ए-दिल-गीर अभी तक
रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
घटेगा तेरे कूचे में वक़ार आहिस्ता आहिस्ता
न सही गर उन्हें ख़याल नहीं