बे-क़रारी रोज़-ओ-शब करने लगा
ब-ख़ुदा हैं तिरी हिन्दू बुत-ए-मय-ख़्वार आँखें
किधर का चाँद हुआ 'मेहर' के जो घर आए
क़त्अ हो कर काकुल-ए-शब-गीर आधी रह गई
का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम
अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ
मार डाला तिरी आँखों ने हमें
करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस करें क्या हवस
ज़बाँ से बात निकली और पराई हो गई सच है
न ज़क़न है वो न लब हैं न वो पिस्ताँ न वो क़द
ग़ैर हँसते हैं फ़क़त इस लिए टल जाता हूँ
इस दौर में हर इक तह-ए-चर्ख़-ए-कुहन लुटा