लोग अंदाज़ा लगाएँगे अमल से मेरे
मैं हूँ कैसा मिरे माथे पे ये तहरीर नहीं
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क्या बात है नज़रों से अंधेरा नहीं जाता
साक़िया ये जो तुझ को घेरे हैं
तन को मिट्टी नफ़स को हवा ले गई
कू-ए-जानाँ में अदा देखिए दीवानों की
रौशन है फ़ज़ा शम्स कोई है न क़मर है
वुसअ'त तिलिस्म-ख़ाना-ए-आलम की क्या कहूँ
अपना घर फिर अपना घर है अपने घर की बात क्या
ये और बात है हर शख़्स के गुमाँ में नहीं
मेरी हस्ती में मिरी ज़ीस्त में शामिल होना
देखूँगा किस क़दर तिरी रहमत में जोश है
तारों से माहताब से और कहकशाँ से क्या
हम तो मंज़िल के तलबगार थे लेकिन मंज़िल