रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना
अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना
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हारून की आवाज़
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
आज की शब जैसे भी हो मुमकिन जागते रहना
जो कुछ भी गुज़रता है मिरे दिल पे गुज़र जाए
फिर मिरी आस बढ़ा कर मुझे मायूस न कर
ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के
तख़ातुब है तुझ से ख़याल और का है
मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात
अन-कही
शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़
मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़