फिर मिरी आस बढ़ा कर मुझे मायूस न कर
हासिल-ए-ग़म को ख़ुदा-रा ग़म-ए-हासिल न बना
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शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़
कब तक रहूँ मैं ख़ौफ़-ज़दा अपने आप से
सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन
ईमाँ भी लाज रख न सका मेरे झूट की
सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब
मैं कुछ न कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात
ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं
बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए
जब तक ज़मीं पे रेंगते साए रहेंगे हम
ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के
अब न कोई मंज़िल है और न रहगुज़र कोई