सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन
सूरज को बुझा दो कि ज़मीं जश्न मनाए
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बगूला
हम भी हैं किसी कहफ़ के असहाब के मानिंद
आए थे तेरे शहर में कितनी लगन से हम
इस जहाँ में तो अपना साया भी
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था
तख़ातुब है तुझ से ख़याल और का है
ये शहर-ए-रफ़ीक़ाँ है दिल-ए-ज़ार सँभल के
आज की शब जैसे भी हो मुमकिन जागते रहना
बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है