तारीकी में लिपटी हुई पुर-हौल ख़मोशी
इस आलम में क्या नहीं मुमकिन जागते रहना
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सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब
हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा
जवाब
इस दश्त पे एहसाँ न कर ऐ अब्र-ए-रवाँ और
इस जहाँ में तो अपना साया भी
सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन
किस लिए कीजे किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश
मैं सो रहा था और कोई बेदार मुझ में था
मंज़िल के ख़्वाब देखते हैं पाँव काट के
बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
हो चुकी अब शाइ'री लफ़्ज़ों का दफ़्तर बाँध लो