Sad Poetry (page 188)
क़ातिल हुआ ख़मोश तो तलवार बोल उठी
बख़्श लाइलपूरी
मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है
बख़्श लाइलपूरी
कोई शय दिल को बहलाती नहीं है
बख़्श लाइलपूरी
कभी आँखों पे कभी सर पे बिठाए रखना
बख़्श लाइलपूरी
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
बख़्श लाइलपूरी
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
बख़्श लाइलपूरी
हम-कलामी में दर-ओ-दीवार से
बहराम तारिक़
ज़ाहिदा काबे को जाता है तो कर याद-ए-ख़ुदा
बहराम जी
यार को हम ने बरमला देखा
बहराम जी
रखा सर पर जो आया यार का ख़त
बहराम जी
कुफ़्र एक रंग-ए-क़ुदरत-ए-बे-इंतिहा में है
बहराम जी
किया है संदलीं-रंगों ने दर बंद
बहराम जी
जो है याँ अासाइश-ए-रंज-ओ-मेहन में मस्त है
बहराम जी
हम न बुत-ख़ाने में ने मस्जिद-ए-वीराँ में रहे
बहराम जी
हो चुका वाज़ का असर वाइज़
बहराम जी
ग़मगीं नहीं हूँ दहर में तो शाद भी नहीं
बहराम जी
दूर हो दर्द-ए-दिल ये और दर्द-ए-जिगर किसी तरह
बहराम जी
दुनिया में इबादत को तिरी आए हुए हैं
बहराम जी
'ज़फ़र' आदमी उस को न जानिएगा वो हो कैसा ही साहब-ए-फ़हम-ओ-ज़का
ज़फ़र
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
ज़फ़र
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
ज़फ़र
मैं सिसकता रह गया और मर गए फ़रहाद ओ क़ैस
ज़फ़र
दिल को दिल से राह है तो जिस तरह से हम तुझे
ज़फ़र
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
ज़फ़र
बे-ख़ुदी में ले लिया बोसा ख़ता कीजे मुआफ़
ज़फ़र
ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई
ज़फ़र
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
ज़फ़र
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
ज़फ़र
वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले
ज़फ़र
वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं
ज़फ़र