गुज़शता मौसमों में बुझ गए हैं रंग फूलों के
दरीचा अब भी मेरा रौशनी के ज़ावियों पर है
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अजब मज़ाक़ उस का था कि सर से पाँव तक मुझे
लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर
दिल को दरून-ए-ख़्वाब का मौसम बोझल रखता है
ज़रा सी बात पर नाराज़ होना रंजिशें करना
हम और तुम जो बदल गए तो इतनी हैरत क्या
तबीअत इन दिनों औहाम की उन मंज़िलों पर है
लोगो! हम परदेसी हो कर जाने क्या क्या खो बैठे
जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा कब बहले बहलाने से
हवा की तेज़-गामियों का इंकिशाफ़ क्या करें
इन लफ़्ज़ों में ख़ुद को ढूँडूँगी मैं भी
कंकर फेंक रहे हैं ये अंदाज़ा करने को
मिरी अलमारियों में क़ीमती सामान काफ़ी था