लोगो! हम परदेसी हो कर जाने क्या क्या खो बैठे
अपने कूचे भी लगते हैं बेगाने बेगाने से
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अजब मज़ाक़ उस का था कि सर से पाँव तक मुझे
हम और तुम जो बदल गए तो इतनी हैरत क्या
ज़रा सी बात पर नाराज़ होना रंजिशें करना
लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर
दिल को दरून-ए-ख़्वाब का मौसम बोझल रखता है
फ़सील शहर की इतनी बुलंद ओ सख़्त हुई
कंकर फेंक रहे हैं ये अंदाज़ा करने को
गुज़शता मौसमों में बुझ गए हैं रंग फूलों के
वो लम्हा जब मिरे बच्चे ने माँ पुकारा मुझे
हवा की तेज़-गामियों का इंकिशाफ़ क्या करें
जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा कब बहले बहलाने से