वो लम्हा जब मिरे बच्चे ने माँ पुकारा मुझे
मैं एक शाख़ से कितना घना दरख़्त हुई
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अजब मज़ाक़ उस का था कि सर से पाँव तक मुझे
फ़सील शहर की इतनी बुलंद ओ सख़्त हुई
इन लफ़्ज़ों में ख़ुद को ढूँडूँगी मैं भी
लोगो! हम परदेसी हो कर जाने क्या क्या खो बैठे
तबीअत इन दिनों औहाम की उन मंज़िलों पर है
हवा की तेज़-गामियों का इंकिशाफ़ क्या करें
हम और तुम जो बदल गए तो इतनी हैरत क्या
कंकर फेंक रहे हैं ये अंदाज़ा करने को
लोग तो इक मंज़र हैं तख़्त-नशीनों की ख़ातिर
गुज़शता मौसमों में बुझ गए हैं रंग फूलों के
जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा कब बहले बहलाने से