इक ख़ला, एक ला-इंतिहा और मैं
कितने तन्हा हैं मेरा ख़ुदा और मैं
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सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं
अभी छुटी नहीं जन्नत की धूल पाँव से
मैं भी बे-अंत हूँ और तू भी है गहरा सहरा
तुम्हें भी चाहा, ज़माने से भी वफ़ा की थी
आँख झपकी थी बस इक लम्हे को और इस के ब'अद
यही चराग़ है सब कुछ कि दिल कहें जिस को
मिरे वजूद के अंदर मुझे तलाश न कर
किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं
मैं तुम को ख़ुद से जुदा कर के किस तरह देखूँ
हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल
घेर लेती है कोई ज़ुल्फ़, कोई बू-ए-बदन