यही चराग़ है सब कुछ कि दिल कहें जिस को
अगर ये बुझ गया तो आदमी भी परछाईं
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मैं भी बे-अंत हूँ और तू भी है गहरा सहरा
किसी सबब से अगर बोलता नहीं हूँ मैं
सवाद-ए-हिज्र में रक्खा हुआ दिया हूँ मैं
मिरे वजूद के अंदर मुझे तलाश न कर
घेर लेती है कोई ज़ुल्फ़, कोई बू-ए-बदन
कई दिनों से मिरे साथ साथ चलती है
मोहब्बत और इबादत में फ़र्क़ तो है नाँ
मैं तुम को ख़ुद से जुदा कर के किस तरह देखूँ
अभी छुटी नहीं जन्नत की धूल पाँव से
रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा
तू मुझ से मेरे ज़मानों का पूछती है तो सुन!