आप का लहजा शहद जैसा तरन्नुम-ख़ेज़ है
ख़ामुशी अब तोड़िए और बोलिए मेरे लिए
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रौशनी फूट निकली मिसरों से
कैसे सहरा में भटकता है मिरा तिश्ना लब
शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
किताब-ए-ज़ीस्त का उनवान बन गए हो तुम
सिला दिया है मोहब्बत का तुम ने ये कैसा
हज़ार ख़्वाब लिए जी रही हैं सब आँखें
ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
वक़्त ख़ामोश है टूटे हुए रिश्तों की तरह
दिल से अपने ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ पूछिए मेरे लिए
यही फ़साना रहा है जुनूँ के सहरा में
कभी मुड़ के फिर इसी राह पर न तो आए तुम न तो आए हम
अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब