किताब-ए-ज़ीस्त का उनवान बन गए हो तुम
हमारे प्यार की देखो ये इंतिहा साहब
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ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
आप का लहजा शहद जैसा तरन्नुम-ख़ेज़ है
मुझे रंग दे न सुरूर दे मिरे दिल में ख़ुद को उतार दे
ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
यही फ़साना रहा है जुनूँ के सहरा में
शाख़-दर-शाख़ होती है ज़ख़्मी
उस से मत कहना मिरी बे-सर-ओ-सामानी तक
कुछ बला और कुछ सितम ही सही
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
दिल से अपने ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ पूछिए मेरे लिए