शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
ये शाम धूप में चलने के बाद आई है
ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शम्अ का जिस्म पिघलने के बाद आई है
इसी तरह से रखो बंद मेरी आँखें अब
कि नींद ख़्वाब बदलने के बाद आई है
यक़ीन है कि कभी बे-असर नहीं होगी
दुआ लबों पे मचलने के बाद आई है
नदी जो प्यार से बहती है रेगज़ारों में
ये पत्थरों में उछलने के बाद आई है
थी जिस बहार की उलझन तमाम मुद्दत से
वो 'इंदिरा' के बहलने के बाद आई है
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