सिला दिया है मोहब्बत का तुम ने ये कैसा
मसर्रतों में भी रोने लगी हैं अब आँखें
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उस से मत कहना मिरी बे-सर-ओ-सामानी तक
मुझे रंग दे न सुरूर दे मिरे दिल में ख़ुद को उतार दे
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है
वो अजीब शख़्स था भीड़ में जो नज़र में ऐसे उतर गया
बहार आई तो खुल कर कहा है फूलों ने
मिरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब
बहारों के आँचल में ख़ुश-बू छुपी है
ये मौसम सुरमई है और मैं हूँ
हज़ार ख़्वाब लिए जी रही हैं सब आँखें