ये शफ़क़ चाँद सितारे नहीं अच्छे लगते
तुम नहीं हो तो नज़ारे नहीं अच्छे लगते
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शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राहबर क्यूँ हो
ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है
वो अजीब शख़्स था भीड़ में जो नज़र में ऐसे उतर गया
कैसे सहरा में भटकता है मिरा तिश्ना लब
दिल से अपने ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ पूछिए मेरे लिए
उस से मत कहना मिरी बे-सर-ओ-सामानी तक
मिरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
कुछ बला और कुछ सितम ही सही