ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
कम अगर है तो आज कम ही सही
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किताब-ए-ज़ीस्त का उनवान बन गए हो तुम
मोहब्बत में आया है तन्हा अभी रंग
दिल से अपने ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ पूछिए मेरे लिए
यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म कि फ़रेब में भी यक़ीन हो
किस ख़ता की सज़ा मिली उस को
अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब
कुछ बला और कुछ सितम ही सही
मुझे रंग दे न सुरूर दे मिरे दिल में ख़ुद को उतार दे
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
आज फिर चाँद उस ने माँगा है
हज़ार ख़्वाब लिए जी रही हैं सब आँखें