ये रौशनी तिरे कमरे में ख़ुद नहीं आई
शम्अ का जिस्म पिघलने के बाद आई है
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किस ख़ता की सज़ा मिली उस को
वक़्त ख़ामोश है टूटे हुए रिश्तों की तरह
अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब
ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
उस से मत कहना मिरी बे-सर-ओ-सामानी तक
काश वो पहली मोहब्बत के ज़माने आते
यूँ वफ़ा के सारे निभाओ ग़म कि फ़रेब में भी यक़ीन हो
आज फिर चाँद उस ने माँगा है
रौशनी फूट निकली मिसरों से
ये मौसम सुरमई है और मैं हूँ
शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राहबर क्यूँ हो