रौशनी फूट निकली मिसरों से
चाँद को जब ग़ज़ल में सोचा है
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अभी से कैसे कहूँ तुम को बेवफ़ा साहब
मोहब्बत में आया है तन्हा अभी रंग
शफ़क़ के रंग निकलने के बाद आई है
बहार आई तो खुल कर कहा है फूलों ने
दोस्त जब ज़ी-वक़ार होता है
दिल से अपने ख़ुद-ब-ख़ुद कुछ पूछिए मेरे लिए
ज़िंदगी आज तेरा लुत्फ़ ओ करम
मिरी चाहतों में ग़ुरूर हो दिल-ए-ना-तवाँ में सुरूर हो
कभी मुड़ के फिर इसी राह पर न तो आए तुम न तो आए हम
कैसे सहरा में भटकता है मिरा तिश्ना लब
आप का लहजा शहद जैसा तरन्नुम-ख़ेज़ है
तमाम फ़िक्र ज़माने की टाल देता है