अब तू दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार
लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई
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मैं आईना बनूँगा तू पत्थर उठाएगा
'साजिद' तू फिर से ख़ाना-ए-दिल में तलाश कर
मोम की सीढ़ी पे चढ़ कर छू रहे थे आफ़्ताब
मुसलसल जागने के बाद ख़्वाहिश रूठ जाती है
सूरज हूँ चमकने का भी हक़ चाहिए मुझ को
प्यासो रहो न दश्त में बारिश के मुंतज़िर
हर घड़ी का साथ दुख देता है जान-ए-मन मुझे
दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
मुझे नहीं है कोई वहम अपने बारे में
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे